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‘होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह’, बाबा बुल्ले शाह के इस कलाम पर जब चढ़ा होली का सूफियाना रंग

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Holi 2023 Special, Baba Bulleh Shah Sufism Holi: होली का त्योहार सिर्फ रंगों का त्योहार ही नहीं बल्कि यह त्योहार है धर्मों की एकता का, यह त्योहार है सांप्रदायिक सौहार्द का. होली के कितने रंग है यह कहना शायद मुश्किल होगा. क्योंकि होली के रंग में कृष्ण और राधा से लेकर मुगल, सूफी संत, हजरत-अमीर खुसरो, शाह नियाज अहमद बरेलवी और बाबा बुल्ले शाह भी खूब रंगे. इसलिए तो होली कभी प्रेम का प्रतीक बनी, कभी एकता की मिसाल तो कभी होली ने गंगा-जमुनी तहजीब सिखाई. मुगलों ने तो होली को ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पालशी का नाम दे दिया.

होली की यही तो खासियत है कि, जिस पर होली का रंग चढ़ गया उसे पहचाना मुश्किल है कि वह किस जात का है या किस धर्म का. होली के रंग में हिंदू-मुसलमान नहीं बल्कि सिर्फ इंसान नजर आते हैं. तभी तो अमीर खुसरो ने भी कहा है कि, ‘जब से राधा श्याम के नैन हुए हैं चार, श्याम बने हैं राधिका, राधा बनी श्याम’. कुछ इसी तरह होली का रंग भी है, जो इसके रंग में रंग गया फिर तू क्या और मैं क्या. बुल्ले शाह ने तो अपनी कलाम से लिखा-‘होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह’.

सूफी संतों में कई शायर हुए, लेकिन बाबा बुल्ले शाह की सूफी शायरी मील का पत्थर है. उनके कलाम से लिखी शायरियां ऐसी होती जैसे मानो मोहब्बत की चाशनी में उन्होंने अपने इल्म की कलम को डुबोकर और ईमान के पैमाने से नाप-तोलकर लिखा हो. इसलिए तो उनकी सूफी शायरियां जितनी बार पढ़ी जाए या सुनी जाए कम ही लगती है.

होली पर भी बाबा बुल्ले शाह ने अपनी कलाम से कई शायरियां लिखीं, जिसमें सबसे खास और चर्चित है-‘होली खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह’. दरअसल इस्लाम में जब कोई जाईज यानी उचित काम किया जाता है तो सबसे पहले बिस्मिल्लाह पढ़ी जाती है या बिस्मिल्लाह कही जाती है. बाबा बुल्ले शाह भी अपने इस कलाम में बिस्मिल्लाह कह कर होली खेलने की शुरुआत करने को कहते हैं. यानी वो होली खेलने को भी जाईज काम बता रहे हैं.  

खाना, रंग, कपड़े आदि के आधार पर हमेशा ही मजहब को बांटने की कोशिश की गई. लेकिन भारत की संस्कृति और तीज-त्योहारों ने भाईचारे को हमेशा जिंदा रखा. इसलिए तो ईद में पूरे मोहल्ले में सेवईंया बटीं. दिवाली में पूरा मोहल्ला दीपों से रौशन हुआ और होली में हर चेहरे पर रंग नजर आया. मजहब की एकता की मिसाल पेश करते हुए बाबा बुल्ले शाह की खूबसूरत रचना भी होली पर लिखी गई है, जोकि संस्कृति की समरसता को पेश करती है. बुल्ले शाह कहते हैं..

होरी खेलूंगी कह



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