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जो सुन नहीं सकते क्या वो सोच भी नहीं सकते? जानिए बिना भाषा के लोग कैसे सोचते होंगे

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इंसान तमाम जीवों से सबसे अलग इसलिए है, क्योंकि वह सोच पाता है. सोचने की क्षमता ही इंसान को विकास की ओर ले जाती है. आप सभी हर दिन कुछ न कुछ सोचते जरूर होंगे. आपने गौर किया होगा कि जब आप कुछ सोच रहे होते हैं तो अंदर ही अंदर अपनी भाषा में उसको बोल भी रहे होते हैं. लेकिन क्या हो अगर कोई व्यक्ति जन्म से ही ना सुन सकता हो, या फिर ना बोल सकता हो… जिसे भाषा का बोध ही ना हो क्या वह भी सोच सकता है. अब इसे ऐसे समझिए कि कोई व्यक्ति जो जन्म से सुन नहीं सकता जिसने कभी कोई शब्द नहीं सुना… वह कुछ सोचते वक्त किस भाषा का प्रयोग करता होगा. उसकी कल्पनाएं किस भाषा में रूप लेती होंगी? आज हम इसी के पीछे का विज्ञान समझेंगे.

क्या ऐसे लोग सोच सकते हैं

जी हां! ऐसे लोग भी सोच सकते हैं और वह सोचते भी हैं. विज्ञान कहता है कि ऐसा बिल्कुल पॉसिबल है. बशर्ते वह इस बात पर डिपेंड करता है कि आप क्या सोच रहे हैं. जिस तरह से आप बिना भाषा के किसी भी चीज को महसूस कर सकते हैं, किसी भी भावना को महसूस कर सकते हैं या किसी का स्पर्श महसूस कर सकते हैं उसी तरह से आप बिना भाषा की सोच भी सकते हैं. लेकिन यह सामान्य और दिव्यांग दोनों लोगों के लिए बेहद अलग एक्सपीरियंस होता है. 

दिव्यांग कैसे सोचते होंगे

मेंटल फ्लॉस में छपी एक खबर के मुताबिक, दुनिया में बहुत से आर्टिस्ट और साइंटिस्ट ऐसे हैं जो समस्याओं को सुलझाने के लिए भाषा का प्रयोग नहीं करते, वह इसे तस्वीरों के जरिए सुलझाते हैं. यानी इन लोगों को किसी भी चीज को समझने के लिए और उसे लेकर सोचने के लिए भाषा की नहीं बल्कि तस्वीरों की जरूरत होती है. जो लोग सुन नहीं सकते वह भी इसी तरह से अपने दिमाग में किसी भी चीज को सोचते वक्त उसकी तस्वीर बना लेते हैं.

इनकी स्मरणशक्ती हम से भी तेज होती है

जो लोग सुन नहीं सकते उनकी स्मरण शक्ति किसी भी आम इंसान से बहुत तेज होती है. इसका एक उदाहरण है 15 साल का बच्चा. मेंटल फ्लॉस में छपी खबर के मुताबिक, जब एक 15 साल का बच्चा जो सुन नहीं सकता था, ने साइन लैंग्वेज सीखी तो उसने अपनी साइन लैंग्वेज में उस वक्त के अनुभवों को भी साझा किया जिसे उसने महज 8 या 9 साल की उम्र में महसूस किया था.

उसने अपने अनुभव में कहा कि उस उम्र में मुझे लगता था कि चांद मुझ पर वार करेगा और मेरे माता-पिता इतने मजबूत हैं कि वह चांद से लड़ेंगे और मुझे बचा लेंगे. लेकिन समझने वाली बात यह है कि जिस वक्त बच्चे ने इन सभी बातों को सोचा और शब्दों में पिरोया उस वक्त उसे साइन लैंग्वेज भी नहीं आती थी. यानी उसके पास तस्वीरों के अलावा ऐसा कोई जरिया नहीं था जिससे वह अपने दिमाग में किसी कहानी को गढ़ सके.

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