कश्मीर मुद्दा: भारत पाकिस्तान की जब भी बात होती है तो दो मुद्दे हमेशा कौंध जाते हैं। पहला कश्मीर तो इंटरनेट आतंक का मेल. दोनों देशों के बीच बातचीत बिल्कुल बंद है और भारत की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी आतंकवाद पर हमला संभव नहीं है। इन सब के बीच चर्चा हो रही है कि एक बार ऐसा भी आ गया था कि कश्मीर के मुद्दे दोनों झीलों में आ गए थे।
इस मसले के हल के लिए साल 2001 में हुए आगरा शिखर वार्ता की चर्चा अवश्य हुई है। उस वक्त परवेज मुशर्रफ पाकिस्तान के सर्वेसर्वा थे। हालांकि अब उनका निधन हो गया है और उनके निधन के समय ही इस शोक में फिर से चर्चा में आ गए हैं। कारगिल युद्ध के करीब दो साल बाद जब 2001 में परवेज मुशर्रफ भारत आए तो उस वक्त भी कारगिल युद्ध के घाव के दृश्य थे लेकिन उम्मीद थी कि शायद कड़वाहट कुछ कम हो जाएगी। इतिहास में एग्रीक शिखर सम्मेलन को भारत-पाकिस्तान संबंध को लेकर कुछ ऐसे याद किया जाता है कि यह एक बड़ा मौका था जब बात बनते-बनते रह गई।
मुशर्रफ ने रखा था 4 सूत्री समाधान
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब ‘नाइदर ए हॉक नॉर ए डव’ में लिखा है कि कश्मीर का समाधान दोनों के हाथ में था और वे इसे हल करना चाहते थे। फिर सवाल यह भी कि समाधान क्यों नहीं हुआ. इस बातचीत में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने चार सूत्री समाधान का प्रस्ताव रखा था।
मुशर्रफ की योजना के जो चार सूत्र थे उनमें पहला-
एलओसी के दोनों ओर लाखों सैनिक कश्मीर में रह रहे हैं। मुशर्रफ के प्रस्ताव के अनुसार भारत और पाकिस्तान दोनों स्थायी शांति के लिए अपने सैनिकों को वापस करना होगा। यह चरणबद्ध वापसी या कुछ और इस पर दोनों पक्षों को विचार करने की आवश्यकता है।
दूसरा-
कश्मीर की सीमाओं में कोई बदलाव नहीं होगा। हालांकि, जम्मू और कश्मीर के लोगों को एलओसी के पार स्वतंत्र रूप से आने-जाने की अनुमति होगी। यहां गौर करने वाली बात ये है कि अगर मुशर्रफ की योजना को भारत स्वीकार करता है तो भारत को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (जो पाकिस्तान अपने आजाद कश्मीर प्रांत के रूप में दिखाता है) पर पाकिस्तान की संप्रभुता को स्वीकार करना और बदले में पाकिस्तान भारत की ओर जम्मू और कश्मीर के अंशों पर भारतीय आधिपत्य को स्वीकार करता है।
तीसरा-
पाकिस्तान लंबे समय से ‘कश्मीरियों के आत्मनिर्णय’ का हिमायती रहा है लेकिन मुशर्रफ अधिक स्वायत्तता के पक्ष में लौटने को तैयार थे। इस प्रस्ताव का एक मतलब यह भी था कि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हमेशा के लिए रहती है और बीजेपी जो शुरू से इसे खत्म करने की बात करती थी, उसे मुद्दे छोड़ देते हैं।
चौथा-
भारत, पाकिस्तान और कश्मीर को शामिल करते हुए जम्मू और कश्मीर में एक संयुक्त निगरानी तंत्र। इसमें मुशर्रफ का जोर स्थानीय कश्मीरी नेतृत्व को शामिल करने का था। शिखर सम्मेलन के टूटने के कई साल बाद मुशर्रफ ने दावा किया था कि भारतीय पक्ष समझौते के पीछे हट गया था, जबकि मसौदा प्रस्ताव हस्ताक्षर के लिए तैयार किया गया था। मुशर्रफ ने साल 2004 में एक कार्यक्रम में कहा था कि मुझे बताया गया था कि भारतीय कैबिनेट ने अपनी मंजूरी देने से इस पर इनकार कर दिया था।
तो फंस गई बात?
शिखर वार्ता के 5 साल बाद साल 2006 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ लिखी तो इसका जिक्र करते हुए लिखा, ‘रात करीब 11:00 बजे भारतीय प्रधानमंत्री ब्लॉग से मुलाकात हुई। गंभीर माहौल था। मैंने उन्होंदो टूक शब्दों में कहा कि ऐसा लगता है कि कोई ऐसा शख्स है जो हम दोनों के भी ऊपर है और जिसके आगे हम दोनों की ही नहीं चले। इससे हम दोनों ही शर्मिंदा हैं।
आडवाणी ने ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में लिखा है कि जनरल ने मेरा नाम तो नहीं लिया था लेकिन इशारा मेरी तरफ था। अटल बिहारी ब्लॉग ने मुशर्रफ के बयानों को दर्ज किया झूठ और कहा कि उनका अड़ियल रवैया, कश्मीर में आतंकवाद को आजादी की लड़ाई साबित करने की कोशिश ही आगरा समझौते को विफल करने में अहम साबित हुआ।
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